सुदर्शन क्रिया : अदभुत, अवर्णनीय, अव्दितीय

सुदर्शन दो शब्‍द के मेल से बना है सु तथा दर्शन । सु का अर्थ है सुंदर तथा दर्शन का अर्थ है देखना । क्रिया का अर्थ है एक अच्‍छा काम । इस प्रकार इसका सम्‍पूर्ण अर्थ हुआ स्‍वयं को या अपने को अच्‍छी तरह देखने का काम । आर्ट आफ लिविंग के बेसिक कोर्स का सबसे महत्‍वपूर्ण और अभिन्‍न हिस्‍सा है सुदर्शन क्रिया । विशेष रूप से स्‍वयं का विकास करने के लिये कोर्स के दौरान सुदर्शन क्रिया का ज्ञान व अभ्‍यास कराया जाता है । यह एक अतिविशिष्‍ट तकनीक है और पूर्णत: व्‍यवहारिक है और इसमें सबसे महत्‍वपूर्ण बात यह है कि इस क्रिया के अनुभव का परिणाम प्रशिक्षार्थी को तत्‍काल ही प्राप्‍त हो जाता है । सुदर्शन क्रिया सांस लेने की एक विशेष व क्रमबध्‍द तकनीक है । यह एक अद़भूत लययुक्‍त श्‍वसन प्रक्रिया है । संस्‍कृत में सु का अर्थ है सही, दर्शन का अर्थ है दृष्टि और क्रिया का अर्थ है शुध्‍द बनाने का कार्य । जो इसका प्रयोग करता है, यह क्रिया उसे शुध्‍द बनाने का कार्य करती है । आर्ट आफ लिविंग की कार्यशाला में कराई जाने वाली सुदर्शन क्रिया में व्‍यक्ति की श्‍वास 'सोउ हम' की ध्‍वनि के द्वारा नियंत्रित की जाती है । 'सो का अर्थ है सांस अंदर लेना और 'हम' यानी सांस बाहर छोडना । पूरी क्रिया में कई चरण होते हैं । प्रत्‍येक चरण में लंबी, मध्‍यम, और निम्‍न श्‍वासन क्रिया (सांस अंदर बाहर) अलग-अलग लय और तीव्रताओं के कराई जाती है । गुरूजी की आवाज में रिकार्ड 'सोउहम' बीजमंत्र के द्वारा कार्यशाला में प्रशिक्षार्थियों को सुदर्शन क्रिया का अभ्‍यास कराया जाता है । कार्यशाला समाप्‍त होने के उपरांत कार्यशाला में प्रशिक्षकों द्वारा दिये गये निर्देशानुसार इस घर पर भी नियमित रूप से करना होता है । सुदर्शन क्रिया व्‍यक्ति के भीतर की सफाई करने का कार्य करती है । पूरे जगत में, पूरी सृष्टि में सबकुछ लयबध्‍द है, एक तारतम्‍य और व्‍यवस्‍था में हैं । हमारे शरीर और मन को भी के तनावमुक्‍त और प्रसन्‍नचित होने के लिये इन दोनों में एक लयबध्‍दता होनी आवश्‍यक है । यह लयबध्‍दता तो हमें जन्‍म से ही प्रकृति ने प्रदान की होती है, किन्‍तु जैसे जैसे हम बडे होते जाते है, नकरात्‍मक विचारों और कुंठित भावनाओं और अवसादों से प्रभावित होकर हमारा शरीर और मन दोंनो अपनी लय से विलग हो जाता है, और जब प्रकृति की व्‍यवस्‍था टूटती है तो इससे प्रभावित होकर हमारा जीवन भी तनावग्रस्‍त और दुखमय हो जाता है । सुदर्शन क्रिया हमारी श्‍वासों को पुन: व्‍यवस्थित कर हमें प्रकृति द्वारा सहज सुलभ कराई गई स्थिति में लौटाकर ले जाती है । सुदर्शन क्रिया के इस चमत्‍कारिक कार्य को आर्ट आफ लिविंग की कार्यशाला में सम्मिलित होने वाले लगभग सभी प्रशिक्षार्थियों ने, सुदर्शन क्रिया के छोटे से प्रयोग के दौरान प्रत्‍यक्ष अनुभव किया है । सुदर्शन क्रिया के अच्‍छे परिणामों के लिये इसका नियमित रूप से घर पर कुछ मिनटों का अभ्‍यास आवश्‍यक है ।
सुदर्शन क्रिया के साथ कुछ अन्‍य श्‍वसन तकनीकें जैसे उज्‍जयी प्राणायाम, कनिष्‍ठा प्राणायाम और भस्त्रिका प्रणायाम भी आर्ट आफ लिविंग का एक विशेष हिस्‍सा है । सुदर्शन क्रिया करवाने के पूर्व प्रशिक्षार्थियों को उज्‍जयी श्‍वास लेने का तरीका, कनिष्‍ठा प्रणायाम और भस्त्रिका प्राणायाम का अभ्‍यास कराकर सुदर्शन क्रिया के लिये आवश्‍यक वातावरण और पृष्‍ठभूमि का निर्माण किया जाता है । सुदर्शन क्रिया करने वालों का स्‍वयं का प्रत्‍यक्ष अनुभव है की इससे उनके दिमाग को गहरे विश्राम का अनुभूति होती है । इससे नकारात्‍मक विचार और कुंठित भावनाएं हमारे जीवन से क्रमश: क्षीण होने लगती है । सुदर्शन क्रिया अपनी विशिष्‍ट लयबध्‍दता के जरिए हमारे पूरे शरीर और व्‍यक्तित्‍व में समरसता और उर्जा का संचार कर देती है और हमे तनावों और अवसादों से मुक्‍त करती है और यह तनावमुक्‍त मन:स्थिति निश्‍चय ही हमारे जीवन, हमारे व्‍यक्तित्‍व और हमारे कार्यों पर सकारात्‍मक प्रभाव डालती है । हम भीतर से एक आत्‍मिक शक्ति और आत्‍मविश्‍वास का अनुभव करते हैं । जब हमारे मन से तनाव और अवसाद समाप्‍त हो जाते हैं तो हम अपने प्रसन्‍नचित स्‍वभाव की ओर लौटने लगते हैं । इससे हमारा जीवन और आसपास के लोग और आसपास का वातावरण भी उर्जामय और उत्‍साह से भरा पूरा हो जाता है ।

जय गुरूदेव - सिर्फ अभिवादन नहीं,बल्‍की एक मंत्र है

आर्ट आफ लिविंग के सदस्‍य जब भी आपस में मिलते हैं तो एक दूसरे का अभिवादन 'जय गुरूदेव' के उदघोष से करते हैं । 'जय गुरूदेव' का प्रयोग जाहिर तौर पे अभिवादन के लिये ही होता है, जैसे हम जब अपने परिचितों से मिलते हैं तो नमस्‍कार, नमस्‍ते, जै राम जी, गुड मार्निग, इवनिंग आदि अभिवादनसूचक शब्‍दों का प्रयोग करते हैं । इसी प्रकार आर्ट आफ लिविंग परिवार के सदस्‍य आपस में जय गुरूदेव कह कर मिलते हैं । इससे सर्वप्रथम इस बात की पुष्‍टी व पहचान हो जाती है कि वे सभी आर्ट आफॅ लिविंग परिवार के ही सदस्‍य है । दूसरी बात यह व्‍यक्‍त होती है की हम अपने गुरूदेव को श्रध्‍दापूर्वक सम्‍मान देते हैं और जिन्‍होंने हमें आपस में जोडा है, आपस में पहचान का अवसर दिया है एक प्रकार से उनके प्रति कृतज्ञता भी व्‍यक्‍त करते हैं । लेकिन गुरूदेव श्री श्री रविशंकर जी इसका बिलकुल अलग और अदभूत अर्थ भी बतलाते हैं । जय गुरूदेव तीन शब्‍दो का मेल है एक जय दूसरा गुरू और तीसरा देव । जय का अर्थ होता है जीत या विजय या जयजयकार । इसी प्रकार गुरू का अर्थ होता है जो हमसे अनुभव ज्ञान और सामर्थ्‍य में श्रेष्‍ठ है और साथ ही साथ हमारा मार्ग दर्शन भी करता है । जो हमें सही गलत की पहचान कराता है, स्‍वयं और ज्ञान से अपना परिचय कराता है और देव का अर्थ है देवता । देवता वे होते हैं जो सदैव प्रसन्‍न रहते हैं । इस दृष्टिकोण से 'जय गुरूदेव' का सर्वथा भिन्‍न और सारगर्भित अर्थ सामने आता है । हम जय गुरूदेव के इस आधार पर अपने अपने ढंग से अर्थ निकाल सकते हैं । जो लोग श्री श्री को अपना गरूदेव मानते हैं, जो लोग यह समझते हैं की गुरूजी ने उनके जीवन को दिशा दी है, सही रास्‍ते पर लाया है, तनावों से अवसादों से उन्‍हें निकाला है, वे जय गुरूदेव कह कर अपने गुरू की जयजयकार करते हैं । गुरूदेव कहते हैं प्रत्‍येक व्‍यक्ति का गुरू उसके भीतर ही है । वह गुरू समय समय पर हम सही और गलत की सूचना देता रहता है, की हमारे लिये क्‍या सही है और क्‍या नहीं । ये अलग बात है की हम अपने भीतर छिपे गुरू की बात माने या ना माने । प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति‍ में दो प्रकार के मन होते हैं । एक छोटा मन और दूसरा बडा मन । बडे मन को हम अपना विवेक भी कह सकते हैं । जब भी हम कोई ऐसा कार्य करते हैं जो हमारे शरीर हमारे परिवार या समाज के लिये ठिक नहीं है बडा मन यानी की हमारा विवेक तुरंत हमें चेतावनी दे देता है । यदि हमने उस चेतावनी को मान लिया तो हम वो कार्य नहीं करते और नहीं माना और अपने छोटे मन का कहा मान लेते हैं तो हम गलत कार्य है ये समझने के बाद भी उसे कर बैठते हैं । छोटा मन कई बार तात्‍कालिक लाभहानि के आधार पर हमें कभी गलत निर्णय करने को भी उकसा देता है और हम उसकी बात में आकर गलत निर्णय ले भी लेते हैं । यहां पर हमारा बडा मन हमारे लिये गुरू की भूमिका में होता है । जब हम अपने विवेक की बात मानकर कोई कार्य करते हैं तो उससे हमारा अहित होने की संभावना भी कम हो जाती है । इसलिये जब जय गुरूदेव कहकर अभिवादन किया जात है तो उसका एक भावार्थ यह भी होता है कि हमारे बडे मन अर्थात हमारे विवेक की विजय हो ।
जय गुरूदेव !

गुरू जी की वाणी

भारत के प्रमुख आध्यात्मिक गुरुओं में से एक श्री श्री रविशंकर का मानना है कि उनके बचपन का कभी अंत नहीं होगा, क्योंकि बचपन सदा निष्पक्ष, सौम्य और निश्छल होता है। जीवन का सच्चा आनंद बचपन को बुढ़ापे तक जीने में है। वे कहते हैं आध्यात्मिकता आत्मा से जुड़ी चीज है। इसे कहीं से सीखा नहीं जाता। रविशंकर कहते हैं कि बचपन में जीने का मतलब बच्चों जैसी हरकतें करने से नहीं है, वरन अपना दिल बच्चों के समान निर्मल रखने से है। अर्थात मन में किसी के प्रति दुर्भावना और द्वेष मत रखो। मैं बचपन में बहुत शरारती था और आज भी हूँ। सभी बच्चे शरारती होते हैं, लेकिन आजकल के बच्चे तनाव में ज्यादा नजर आते हैं। अभिभावकों को चाहिए कि बच्चों का तनाव दूर करें और उन्हें स्वाभाविक ढंग से जीवन का आनंद लेने दें। श्री रविशंकर कहते हैं कि व्यक्ति अपने जीवन को बिल्ली-चूहे का खेल न बनाए, उसे उल्लास से जिए। श्री रविशंकर कहते हैं कि सिनेमा का समाज पर गहरा असर होता है। हम पश्चिम की नकल कर रहे हैं। वहाँ की फिल्मों में बहुत हिंसा दिखाई जाती है और अब वही हमारी फिल्मों में हो रहा है। गाँवों के लोग टीवी पर कोट-टाई पहने न्यूजरीडर को देखते हैं, अब वे भी ऐसे ही कपड़े पहनने लगे हैं। साफा और धोती-कुर्ता की जगह कोट-पैंट ने ले ली है।
आसान नहीं है गुरु बनना : आध्यात्मिकता आत्मा से जुड़ी चीज है। इसे कहीं से सीखा नहीं जाता। मैं आध्यात्मिक जीवन को सादगी से जीने में विश्वास रखता हूँ। बाबा रामदेव से मैं मिला हूँ, योग के क्षेत्र में वे भी बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। भारत को अभी और ऐसे लोगों की जरूरत है, जो समाज को सही दिशा दिखा सके।
सुदर्शन क्रिया : हमारे साँस, मन, शरीर और आत्मा सब में एक लय है। लय को एक साथ लाने को ही सुदर्शन क्रिया कहते हैं। इसे प्रायाणाम सीखने के बाद कर सकते हैं। आधा-पौन घंटा करने के बाद दर्शन होने लगता है कि मैं कौन हूँ। ध्यान-समाधि लगने लगती है। दो-चार दिन सीख लें उसके बाद खुद से भी कर सकते हैं। दो दिन प्राणायाम और फिर सुदर्शन क्रिया सिखाते हैं। पूरी दुनिया में इसे सिखाने वाले लोग हैं और जो भी इस काम से जुड़ना चाहते हैं, उनका स्वागत है।
परंपरा : अपनी परंपराओं को छोड़ने की जरूरत नहीं है। यहाँ प्रत्येक परंपरा की अपनी खूबी और सुंदरता है। बस ये देखना पड़ेगा कि परंपरा में कट्टरपंथ के तत्व न आने पाएँ या कहें कि परंपरा का ये दावा न हो कि हम ही सर्वश्रेष्ठ हैं। हमें इससे बचना है। भारत की विरासत को सहेजकर भी रखना है और विशाल दृष्टिकोण भी रखना है।
आध्यात्मिक गुरुओं के बारे में : सबकी अपनी-अपनी जगह है। एक ही सत्य और ब्रह्मसत्ता है। अलग-अलग समय में वो लोगों से तरह-तरह के काम कराता है। दुनिया की रीति ऐसे ही चलती है। मुझे संस्कृत का श्लोक याद आता है दुर्जनं प्रथमं वंदे....बुरा आदमी खुद गड्‍ढे में गिरकर तुम्हें सिखा रहा है कि तुम गड्‍ढे में न गिरो। इसलिए बुरे आदमी को भी प्रणाम करो। सज्जन को भी प्रणाम करो, जो तुम्हें ये सिखा रहा है कि तुम्हें क्या करना चाहिए। इस तरह हर आदमी से हम कुछ न कुछ सीखते हैं।
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